सभ्यताएँ
नग्न होती जा रहीं इस दौर में
आचरण
खोया
न जाने कब कहाँ किस शोर में
पार्टियों में मथ थिरकता
पश्चिमी संगीत में
नृत्य करतीं युवतियाँ
मदहोश होकर प्रीत में
नशे के
सौदागरों की
छवि न मिलती भोर में
पार कर ड्योढी समय की
तितलियाँ मुखरित हुईं
नाचतीं फिरती पबों में
शान से गर्वित हुईं
चोट पाकर
झलमलाया
जल नयन के कोर में
पहन बहुरंगे बासन नूतन
दिखातीं तन बदन
अर्धसत्यों सी प्रकाशित
हो रही जैसे कथन
कैट करती वाक
मंचों पर
समय की डोरे में
शयन कस्खों में चहकती
पात्र डेली सोप-सी
महल जेवर वस्त्र में
सजती निखरती होप-सी
देख वातायन
सिमटता
मनुज अंधे खोर में ।
रचनाकार- डॉ. जय शंकर शुक्ला
संपर्क- बैंक कालोनी, दिल्ली
दूरभाष- 09968235647
सभ्यताएं नग्न होती जा रही इस देश में -आज के समय और समाज को प्रतिबिंबित करता अच्छा गीत .
ReplyDeleteगीत क लिए आपको बहुत बहुत बधाई
सुन्दर कविता.
ReplyDelete