पिछले दिनों
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के खून से सनी मिट्टी की नीलामी और इसके लिए लगे लाखों
रुपये के दामों ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि माटी की महिमा भी
अपरम्पार है. कभी यह ‘माटी मोल’ होकर हम इंसानों को कमतरी का अहसास करा जाती है तो
कभी ‘देश की अनमोल माटी’ बनकर हमारे माथे का तिलक बन जाती है. जब यही माटी देश के
लिए मर मिटने वाले अमर शहीदों और महात्मा गाँधी जैसे महान व्यक्तित्व से जुड़ती है
तो इतनी बेशकीमती हो जाती है कि वह घर-घर में पूजनीय बन जाती है. वास्तव में माटी
का अस्तित्व महज मिट्टी के रूप में भर नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति,जीवन
शैली,आचार-विचार और परम्पराओं का अटूट हिस्सा है तभी तो जीवन की शुरुआत से लेकर
अंत तक माटी हमारे साथ जुडी रहती है.जीवन के साथ माटी के इसी जुड़ाव ने ऐसे तमाम
मुहावरों,लोकोक्तियों और सामाजिक शिष्टाचारों को जन्म दिया है जो अपने अर्थों में
जीवन का सार छिपाएँ हुए हैं. सोचिए ‘माटी के लाल’ में जिस बड़प्पन,सम्मान और गर्व
के भाव का अहसास होता है वही अहसास ‘मिट्टी के माधो’ का तमगा लगते ही जमीन पर या
यों कहे कि रसातल में पहुँच जाता है. हम ‘माटी के मोती’ भी गढ़ सकते हैं तो ‘माटी
के पुतले’ भी. अपने ‘बदन पर माटी लगाकर’ कोई भी पहलवान जब अखाड़े में उतरता है तो
वह ताकत से शराबोर होता है लेकिन थोड़ी ही देर में वह ‘धूल में मिलकर’ अपना पूरा
प्रभाव खो बैठता है.यही नहीं अगर यहाँ ‘धूल में मिलने’ के स्थान पर ‘माटी में
मिलने’ का प्रयोग कर ले तो वह दुनिया छोड़ने का सा भाव उत्पन्न कर देता है.कई और भी
ऐसे प्रयोग हैं जहाँ माटी की महिमा प्रतिबिम्बित होती है मसलन ‘काठ की हांड़ी’ और
‘माटी की हांड़ी’ के बीच का फर्क महसूस कीजिये. यहाँ पहली हांड़ी अर्थ की दृष्टि से
मूर्खता की पर्याय है तो दूसरी हांड़ी में उपयोगिता का भाव है.जब यही हांड़ी ‘माटी
के घड़े’ में बदलती है तो शीतलता का स्त्रोत बनकर लाखों-करोड़ों लोगों की प्यास
बुझाने का जरिया बन जाती है.
कुछ इसी तरह का दर्शन ‘मिट्टी संवारना’ और
‘मिट्टी खराब करना’ में है क्योंकि मिट्टी संवारने से भविष्य के प्रति आदर्श सोच
को बल मिलता है तो ‘मिट्टी खराब करने’ से बदनामी का भाव प्रकट होता है और यदि
‘बुढ़ापे में मिट्टी खराब हो जाए’ तो समझो खुद के साथ-साथ पूरे खानदान का भगवान ही
मालिक है. इसके अलावा ‘माटी मिले’ को तो बुंदेलखंड के घर-घर
में सुना जा सकता है. अभिनेता आमिर खान की मेहरबानी से ‘चोला माटी का’ भी बहुत लोकप्रियता बटोर चुका है. माटी की महिमा ने मुहावरों ही नहीं जाने-माने कवियों को
भी अपने मोहपाश में बाँध लिया है तभी तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की
अभिलाषा’ कविता में लिखा है “मुझे फेंक देना
उस पथ पर जिस पथ जाए वीर अनेक”. एक अन्य कवि ने लिखा है-“वीरों का अंदाज़
कुछ निराला हुजूर होता है इन्हें वतन से इश्क का अजीब सरूर होता है तिलक माटी का
लगा रण में निकलते जब हैं ये माटी तो इनकी नज़रों में माँ का सिंदूर होता है” तो किसी ने कहा कि “चन्दन है इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम है..” और कबीरदास जी ने तो आज से लगभग ढाई सौ
साल पहले माटी के महत्व और इंसान को उसकी औकात बताते हुए कह दिया था-“माटी कहे कुम्हार से तू क्या रुंदे मोय
एक दिन ऐसा आएगा मैं रुन्दुंगी तोय”......!
आपके विचार आज के परिप्रेक्ष्य में तर्कसंगत है.
ReplyDeleteशुक्रिया मनीषा जी....
Deleteसंजीव जी माटी के विभिन्न रूपों व अंदाजों से आपने बड़ी रोचकता से परिचित करवाया...
ReplyDeleteधन्यवाद सुमित भाई.....बस बापू के खून से सनी मिट्टी की नीलामी की चर्चा ने इस लेखन के लिए प्रेरणा दे दी
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन तर्क संगति प्रस्तुति,.....
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,
आभार धीरेन्द्र जी,आपकी सराहना के लिए
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