मैं तो यही कहूँगा । जो देखा और देख रहा हूँ उससे यही नतीजा निकाला है कि -गर खुदा मुझसे कहे, कुछ मांग ले बन्दे मेरे । मैं ये मांगू-प्लीज मेरी सात पुश्तों तक किसी की जीन में ‘लेखक’ के जर्म (कीटाणु) मत डालना-। यह एक ऐसी दाद है कि प्राणी अपनी खाल नोच कर खुश होता है । ऐसा अभिशाप है कि आत्मा शरीर में रहते हुये भी विधवा बनी रहती है । ऐसा टैलेंट है जो ‘कब्र’ के बाद भी पीछा नहीं छोड़ता ।
यहाँ मैं कुछ ‘कालजयी’ लेखकों का कच्चा चिट्ठा खेल रहा हूँ । ‘कालजयी ’इसलिये, क्योंकि उनमें से एक महापुरूष अब ‘काल’ में जा चुके हैं - यानी कालजयी हैं ।
लेखक नं0 1- यह मेरे बचपन के दोस्त थे । व्यापारी् परिवार से थे । घर में किसी चीज की कमी नहीं थी । सब कुछ बढ़िया चल रहा था, किन्तु होनी को कौन टाल सकता है । इन्टरमीडियेट में पढ़ते हुये इनके अन्दर ‘लेखक’ के विषाणु फूट पड़े। गर्मी की छुट्टियों में ‘प्रेम और विछोह’ नाम का महाकाव्य लिख डाला । (सौभाग्य से तब तक वह कुअॅारे थे ) उसे पढ़वाने के लिये सबसे पहले मुझे पकड़ लिया । दो सौ अस्सी पेज की कृति देखते ही मेरी हलक सूख गयी ।
लेकिन मुझे उनकी परचून की दूकान से कुछ माल उधार चाहिये था, इसलिये मन मार कर कुछ पेज पढ़ गया । तारीफ की तो उन्होंने एक और ‘महाकाव्य’ को पृथ्वी पर लाने का ऐलान कर दिया । उससे बचने के लिये मैंने उनकी दूकान से उधार का मोह भी छोड़ दिया । मुझे उममीद थी कि शादी के बाद उनकी यह बीमारी दूर हो जायेगी, किन्तु -मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की ।
लेखक नं0 2- यह भी उ0प्र0 की उर्वर जमीन से उपजे साहित्यकार हैं । मैं इनको काफी नजदीक से जानता हूँ । दुर्भाग्यवश मेरे मित्र हैं । कलम के अलावा एक एन0जी0ओ0 भी चलाते हैं । घर में कम जन्तर मंतर पर ज्यादा पाये जाते हैं । पहले नास्तिक हुआ करते थे, आजकल ‘सुधर्मी’ हो गये हैं । उनके इस वैचारिक परिवर्तन के पीछे उनकी फाकामस्ती बतायी जाती है ।
एक दिन उन्होंने घोषणा कर दी कि वह ‘सरस्वती’ के वारिस हैं इसलिये ‘लक्ष्मी’ के मोह में नहीं पडेंगे । कुछ दिन के लिये दिल्ली भी आये पर ‘लेखन’ के अलावा कहीं मन रमा नहीं । इतने जबरदस्त लेखक थे कि प्रकाशक के पास जाने की तकलीफ कभी नहीं उठायी । परिणाम यह हुआ कि ‘दुर्लभ पांडुलिपियाँ’ कभी छपी ही नहीं । इस पीड़ा ने उनके लिवर में फोड़ा पैदा किया और वह 53 साल की आयु में ‘कालजयी’ हो गये । तब तक वह साहित्य के अलावा तीन पुत्र और दो पुत्रियों का सृजन कर चुके थे । उनकी पत्नी को जो भी दुर्लभ साहित्य प्राप्त हुआ उनके पीछे उसे भी आग के हवाले किया ।
स्वर्ग से गिरे खजूर में अटके । दो साल कड़की में निकले, फिर एक ‘मोहतरमा’ कुंडली में (बगैर शादी) दाखिल हो गयी । दोनों ही नास्तिक थे, लिहाजा एक नये धर्म को खोद निकाला । इस बार पूरी धर्म संहिता लिख डाली और दावा किया कि ‘साक्षात भगवान’ खुद दिल्ली के ट्रेफिक से बचकर उनकी कुटी में आये थे । आजकल वह लोगों में ‘सुधर्म’ बाँट रहे हैं । लेखक से ‘अवतार’ बने मेरे मित्र अब 55 साल के हो चुके हैं । शरीर में ‘चीनी कम’ होने से आजकल जन्तर मंतर कम आते हैं ।
टैलेंटेड लेखक हैं, आज से 18 साल पहले साउथ दिल्ली से एक ‘साप्ताहिक’ समाचार पत्र भी निकालते थे और स्थानीय माफिया के खिलाफ अकेले कलम को तलवार बना रखा था । तब हम भी जानते थे कि भीमराव अंबेडकर को अपना आदर्श मानने वाला यह लेखक बहुत आगे जायेगा, पर तभी आजीवन कुँआरा रहने की भीष्म प्रतिज्ञा से बँधे इस मित्र ने एक शादीशुुदा महिला को अपनी कुंडली में दाखिला दे दिया । वह साथ में अपने दो बच्चे भी ले आयी, बस यहीं से -तेरी गठरी में लागा चोर.....।
लोग कहते हैं कि आदमी की तरक्की के पीछे किसी ने किसी औरत का हाथ होता है । लेखक की तरक्की शुरू हो चुकी थी-पहले उनका साप्ताहिक पेपर बन्द हुआ, बाद में घर से बेदखल हो गये । इस पर भी तरक्की रूकी नहीं, एक दिन इलाके के सारे तेल डीलरों ने इन पर सरेआम हमला कर दिया । इस ‘कारसेवा’ के बाद वह हफ्तों अस्पताल में दाखिल रहे । लिविंग पार्टनर भी साथ छोड़ गयी ।
मैं अचनाक हुये इस हमले से हैरान था । वह कह रहे थे-‘तुम अगर बाजार में छा जाना चाहते हो तो किसी ‘महान प्रतिभा’ की जीवनी लिखो । वैसे तुम लिखते कहाँ हो ?
लेखक नं0 3 - इन्हें सिर्फ लेखक कह देने से काम नहीं चलेगा -यह बहुमुखाी प्रतिभा के धनी हैं । कभी पुलिस में हुआ करते थे । अचानक उन्हें आभास हुआ कि उनके अन्दर प्रतिभा की सूनामी मौजूद है । बस फिर क्या था, एक से एक विलक्षण रचनायें अवतरित होने लगी । कविता, छन्द, मुक्तक, शायरी, लघुकथा आलेख, व्यंग्य, कहानी, किताब और आत्मकथा सब कुछ लिख डाला ।
दिक्कत यह थी कि उन्हें छापने का जोखिम कोई नहीं उठा रहा था । इसके बावजूद वह लिखने से बाज नहीं आये ।
पहला प्रकाशक उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद सामने आया । बीबी के मौत के बाद बीमें की रकम से उन्होंने अपनी डेढ़ कुंटल अप्रकाशित रचनाओं में से बीस पुस्तकों को प्रकाशित कराया - (मरकर बीबी ने उन्हे अमर कर दिया) वह आज भी लिख रहे हैं । ऐन ईद के रोज कनाॅट प्लेस में मेरी मुलाकात हुयी-‘आपसे मिलकर बहुत खुशी हुयी ।’
‘आप पहले आदमी हैं जो लेखक से मिलकर खुश होते हैं । बाकी तो आहट पाकर भागते हैं ।’
‘यह हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य है ।’
‘आप भी लिखते हैं ?’
‘जी’
‘क्या लिखते हैं ?’
‘व्ंयग्य, आलेख, आलोचना, कहानी ।’
‘मुझे पर एक आलेख लिखो ।’
‘कई राष्ट्रीय अखबार और पत्रिकायें हैं ।’
वह तुरन्त खास से आम हो गये-‘मेरा भी जुगाड़ लगाओ ।’
लेखक नं0 4 - चाचा गालिब ने कहा था-एक ढूढों हजार मिलते हैं । चौथा लेखक मैं खुद हूँ । वैसे भी मैं दुबारा ‘लेखक’ बनकर पृथ्वी पर आना पसन्द नहीं करूँगा । मैं पलटकर देखता हूँ तो इस हादसे का कोई कुसूरवार नहीं नजर आता । यानी मैंने खुद ही इस दरिया-ए-अतिश को चुना और अब खुद ही के.एल. सहगल की तरह अंतर्नाद कर रहा हूँ-‘जल गया, जल गया मेरे दिल का जहाँ !!’
मैंने उनकी दुखती रग पर उंगली रखी-‘आप कोशिश तो करो, भला आपको कौन मना कर सकता है ?’
और उन्होंने सारी मवाद बाहर कर दी-‘प्रतिभा की कोई कद्र नहीं है-कौए मोती लूट रहे हैं रचनायें भेजता हूँ तो न छापते हैं न जवाब देते हैं । फोन करो, तो कहेंगे ‘कम्पोज’ करके भेजो । अपना पैसा और दिमाग दोनो खर्च करो, और जवाब में ठ्नठ्न गोपाल । इनको देष में रहने का हक नहीं है, अब मैंने उन्हें जवाब देने का मन बनाया है ।’
‘कैसे ?’
‘मैं अपने ही जैसे प्रतिभावान लेखकों का एक मंच बना रहा हूँ । इसमें वह लोग शामिल होंगे जिनकी रचनायें कोई छापता नहीं । हमारा मंच सबसे होनहार लेखक को ‘प्रतिभा श्री’ का खिताब देगा ।’
‘सुभान अल्लाह ! उसका चुनाव कैसे करेंगे ?’
‘बहुत आसान है - जिस विलक्षण रचना को प्रकाशकों ने सबसे ज्यादा बार वापस किया होगा -उसके लेखक को हम ‘प्रतिभा श्री’ का खिताब देंगे-’।
मैं अपने आपको ‘अयोग्य’ महसूस कर प्रतिभा श्री की महफिल से वास आ गया ।
मेरे लेखक होने से मेरी बीबी दुःखी । उस पर कभी मेरे पत्रकार / लेखक / उपन्यासकार होने का रोब ही नहीं पड़ता, उल्टे कभी कभी मेरी ‘विराट व्यक्तित्व' को एक वाक्य में बौना साबित कर देती है-‘खाला जो रिश्ता मेरे लिये लायी थी, मैं हाँ कर देती तो आज यह दिन न देखना पड़ता ।’
और मेरे अन्दर का लेखक पानी पानी हो जाता है।
मैं नही जानता कि मेरे अन्दर लेखक के पिस्सू कब दाखिल हुये । अब हालात यह है कि-लिखे बिना रहा जाये न । मैं लाख चाहूँ कि बीबी की सलाह पर प्याज, टमाटर, आलू-भिन्डी पर ध्यान दूँ पर बीबी के बेखबर होते ही लहसुन की जगह लेख, आलू की जगह आर्टिकल और बैंगन की जगह व्यंग्य की शरण में चला जाता हूँ क्या करूँ ! दिल है कि मानता नहीं ।
लेखक : सुलतान भारती
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और जो लगे बुरा तो बुरा लिखें
पर कुछ न कुछ तो लिखें...
निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!