देता है दवा जो दर्द को
वो मयखाना मुफ्त में बदनाम हुआ,
दे कर सुकूँ टूटे हुए दिलों को
मयख़ाने को दर्द का एहसास हुआ |
चढ़ा के ग़म के सलीबों पर
जब भी ज़माने ने ठुकराया है,
गैरों को भी अपना मान कर
मयख़ाने ने उसको गले लगाया है |
हो वाईज, चारागर या फिर मुफलिस
हर कोई साथ-साथ बैठता है,
देते हैं सहारा सब मिल कर
जो भी यहाँ लड़खड़ाता है |
न धर्म देखता है और न जात-पात
मयखाना तो दिल के रंज देखता है,
काबे में करे सजदा या बुतखाने में पूजा
हो जाता है हमसफ़र जो भी यहाँ
आता है,
न करो बदनाम मयख़ाने को
ये तो दिलों को जोड़ता है,
पहुंचा कर सुकूँ सबको
खुद बदनामी की चादर ओढ़ता है |
न होते मयख़ाने तो
रिंद कहाँ जाते ?
न होते मयख़ाने तो ,
दिल-दीवाने कहाँ जाते !
न करते ग़म गलत
तो कैसे जी पाते,
बिन पिये, बिन जिये
यूँ ही मर जाते |
रविश 'रवि
फरीदाबाद
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सुमित प्रताप सिंह,
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