रात को पढते-पढते कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला, लेकिन नींद
में भी वही कशमकश चलती रही, कि कैसे समझाऊँ मोनू को कि कई बच्चों के साथ ऐसी परिस्थिति आती है
और उससे डरकर नहीं भागा जाता, बल्कि उसका सामना किया जाता है. क्या हुआ जो बच्चे तुम्हें
चिड़ाते हैं, तुम्हारा मजाक उड़ाते हैं. अगर इस बार मार्क्स कम आयें हैं, तो
अगली बार ज्यादा भी आ जायेंगे. बस तुम मन लगाकर पढ़ो. लेकिन उसने तो जैसे स्कूल न
जाने की कसम ही खा ली है. हर वक़्त अपने कमरे में घुसा रहता है. खाना खाने टेबल पर
आता भी है तो गुमसुम सा रहता है और न के बराबर खा कर
उठ जाता है. सुबह उठी तो भी अलसाई हुई सी थी. रात का सपना और बातें अब तक
दिमाग में घूम रही थीं. किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था, कि अचानक दरवाजे की
घंटी बजी. दरवाज़ा खोला तो मेरी बचपन की सहेली रोज़ी खड़ी हुई थी. उसके साथ उसकी बिटिया लीनू थी. उन दोनों को देखते ही मेरा
मन खिल उठा. लीनू भागकर मोनू के कमरे में चली गयी. रोज़ी ने मुझसे पूछा कि तेरा
चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों है? मेरे बताने पर उसने कहा कि कुछ पल रुक ज़रा और उसने
लीनू को ज़ोर से आवाज़ लगाई. लीनू भागकर आ आई. रोज़ी ने न जाने लीनू के कान में क्या
कहा कि वो कूदती-फांदती मोनू के कमरे में चली गई और कुछ देर बाद एक
चमत्कार हुआ जो मुझसे इतनी कोशिशों के बाद भी नहीं हुआ हुआ था. मोनू और लीनू एक-दूसरे
का हाथ पकड़े हुए फुटबॉल लिए दरवाज़े पर खड़े थे और मोनू मुझे कह रहा था कि वह
कल से स्कूल जायेगा. फिलहाल वह लीनू के साथ पार्क में खेलने जा रहा है. मैं हक्की-बक्की
हो उसे देखती रही और दोनों बच्चे खेलने चले गए. मैंने हैरानी से रोज़ी से पूछा कि ये सब
कैसे हुआ? ,तो उसने कहा कई बार जो काम हम बड़े नहीं समझा पाते वो बच्चे एक-दूसरे
को आसानी से समझा देते हैं. मैंने लीनू को मोनू की समस्या बतायी थी.
वे दोनों हम-उम्र हैं और एक-दूसरे को बेहतर तरीके से समझ और समझा सकते हैं. मैं रोज़ी
के साथ घर की बालकनी में खड़ी मोनू और लीनू को साथ खेलते हुए देखकर नम आँखें लिए
सोच रही थी कि उनके और बच्चों के बीच में सोचने और समझने के तरीके में वास्तव में
कुछ न कुछ तो फर्क है ही. दो पीढियों का फर्क.
रमाजय शर्मा
ह्योगो, जापान
चित्र गूगल से आभार
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