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Sunday, March 9, 2014

क्या हम नेताओं को 'राज' करने के लिए देते हैं वोट

लोकतंत्र की आत्मा जनता की संप्रभुता है तो फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के कर्ता-धर्ता ‘राजनेता’ कैसे हो सकते हैं और उनके द्वारा जनता के लिए बनाई जाने वाली नीतियों और उनके क्रियाकलापों को हम ‘राजनीति’ क्यों कहते हैं? चूँकि एक बार फिर हम लोकतंत्र के सबसे बड़े अनुष्ठान में भागीदार बनने जा रहे हैं और तमाम दल अपने अपने स्तर पर जनता की नज़रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने में जुटे हैं. ऐसे में यह सवाल दिमाग में आना लाज़िमी है कि जनता के लिए काम करने वाले या जनता के प्रतिनिधि ‘जनप्रतिनिधि’ कहलाने के स्थान पर ‘राजनेता’ क्यों बन गए. अमेरिकी राष्ट्रपति और चिन्तक अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी एवं अब तक लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा के मुताबिक “लोकतंत्र जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है". लोकतंत्र शब्द का शाब्दिक अर्थ ही है- "लोगों का शासन या  एक ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है. जब लोकतंत्र के सम्पूर्ण यज्ञ का उद्देश्य ही लोक,जन या फिर प्रजा केन्द्रित है तो फिर यह राजनीति,राजनेता और राजनीतिक दल में कैसे बदल गया. कायदे से तो इन्हें जननीति,जननेता और जन-नीतिक या प्रजा-नीतिक दल कहा जाना चाहिए. राजे-महाराजों और अंग्रेजों के दौर में तो राजनीति शब्द का उपयोग सर्वथा उचित था क्योंकि वे वास्तव में ‘राज’ ही करना चाहते थे लेकिन हमारी मौजूदा लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो राज का कोई अस्तित्व ही नहीं है बल्कि इसके स्थान पर संविधान में ‘जन’ और ‘प्रजा’ जैसे शब्दों को प्राथमिकता दी गयी है. यदि हम ‘राजनीति’ के स्थान पर ‘राज्य नीति’ का इस्तेमाल करें तब भी बात समझ में आती है क्योंकि इस शब्द से किसी राज्य या देश के अनुरूप नीतियों का संकेत मिलता है जबकि राजनीति तो सीधे-सीधे जनता पर शासन करने का अर्थ देती है और मौजूदा दौर में यही हो भी रहा है. तमाम ‘राज’नीतिक दल जनहित में काम करने के स्थान पर राज करने में जुटे हैं. एक बार हमने मौका दिया नहीं कि फिर पांच साल तक वे बस हम पर शासन ही करते हैं. वैसे भी जब किसी दल के अस्तित्व और उसकी नीतियाँ राज करने पर केन्द्रित हो तो फिर उससे जनता की भलाई की उम्मीद कैसे की जा सकती है. राजनीति शब्द के अर्थ की खोज में जब मैंने इसके अभिभावक ‘पॉलिटिक्स’ के अर्थ को तलाशा तो पता चला कि मूल रूप में अर्थात ग्रीक भाषा में तो यह वाकई जनप्रतिनिधित्व को ही अभिव्यक्त करता है लेकिन हिंदी का सफ़र तय करते करते यह राज्यनीति से राजनीति बन गया. इस बदलाव ने ही इसे जनता से इतना अलग कर दिया कि अब एक विचारक विल रोजर्स के शब्दों में कहे तो “सब कुछ बदल गया है. लोग हास्य-अभिनेता को गंभीरता से लेते हैं और राजनेता को मजाक में.” वैसे इस गिरावट के लिए बतौर नागरिक हम सब भी कम जिम्मेदार नहीं है. यदि हम मतदान में पूरी गंभीरता के साथ शिरकत करें तो राजनेता भी जननेता बनने पर मजबूर हो जाएंगे और फिर शायद हम प्लेटो के इस कथन को झुठला पाने की स्थिति में होंगे कि “राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा भुगतना पड़ता है कि आपको घटिया लोगों के हाथों शासित होना पड़ता है”. तो इस बार फिर मौका है राज-तंत्र और राजनीति को जनतंत्र एवं जननीति में बदलने का. यदि अब भी हम अपने सबसे सशक्त अधिकार ‘मताधिकार’ के अवसर को छुट्टी समझकर घर में बैठे रहे तो फिर शायद नेताओं से शिकायत करने का अवसर भी गवां बैठेंगे.  

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!