दिन का है उजाला
या रात का है अँधेरा
लगता है कुछ यूँ
मिल गए हैं दोनों....
कुछ साबित करना चाहते हैं !!!
पर क्या ???
दरकने लगा हूँ,
टूटने लगा हूँ...
अपनी ही दीवारों से
झड़ने लगा हूँ....
कर तो रहा हूँ कोशिशें
खुद को खड़ा रखने की
नाव की पतवार को
पकड़ के रखने की
पर वक़्त के ये रक़ीब थपेड़े !!!
कर रहे हैं कमज़ोर मुझे...
न जाने कब तक....
कर पाऊँगा सामना....
इन धूल भरी
आँधियों का….
काली रात सी बैरन
ज़िन्दगी की परेशानियों का.......
रविश 'रवि'
फरीदाबाद (भारत)
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