क्या हमारे देश में इतनी भी
क्षमता नहीं है कि हम समंदर में डूबते किसी जहाज़ या पनडुब्बी को खींचकर बाहर निकाल
सकें? या उसे फटाफट काटकर उसमें फँसे लोगों को सुरक्षित बचा सकें? इसी तरह के अनेक सवाल
मेरी तरह स्वाभाविक रूप से कई लोगों के दिमाग में आए होंगे जब उन्होंने टीवी
न्यूज़ चैनलों और समाचार पत्रों में भारतीय नौसेना की पनडुब्बी आईएनएस सिन्धुरक्षक
को धमाकों के बाद मुंबई के समुद्री तट पर डूबते देखा होगा. दरअसल हकीकत में यह हादसा
इतना सहज नहीं था जितना देखने में लगता है. तकनीकी जानकारी के अभाव और पनडुब्बी की
बनावट एवं कार्यप्रणाली की पूरी तरह से समझ नहीं होने के कारण हम इसे भी कार-बस के
नदी में डूबने जैसी सामान्य दुर्घटना की तरह ही समझ रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है
कि समन्दर में डूब रहे जहाज़ या पनडुब्बी को बिना किसी क्षति के बचा पाने का हुनर
और क्षमता तो अभी ढंग से इनके निर्माता देशों के पास भी नहीं है. इसके अलावा यह
बचाव अभियान इतना खर्चीला होता है कि किसी भी देश के लिए इस खर्च को बर्दाश्त कर पाना
आसान नहीं है.
यदि हम सिन्धुरक्षक मामले की बात करे तो
यह दुर्घटना मुंबई में तट के काफ़ी करीब हुई जहाँ पानी छिछला होता है और कम पानी
में किसी ताकतवर जहाज का आ पाना संभव नहीं होता इसलिए सिन्धुरक्षक को खींचकर बाहर
लाने का विकल्प ही नहीं था. रही बात पनडुब्बी को सीधे ऊपर उठकर बाहर निकालने की,
तो हमारे देश में फ़िलहाल कर्नाटक के कारवार में बने नए नौसेना बेस आईएनएस कदम्ब को
छोड़कर किसी भी नेवल बेस में ‘शिप लिफ्टिंग फैसिलिटी’ अर्थात जहाज़ को सीधे उठाकर
कहीं और पहुंचा सकने की क्षमता नहीं है. यहाँ भी अभी महज 10 हजार टन वजन वाले जहाज को
उठाने की क्षमता है जबकि सामान्य तौर पर युद्धपोत इससे ज्यादा भारी भरकम होते
हैं.सिन्धुरक्षक पनडुब्बी ही लगभग ढाई से तीन हजार टन वजन की है और अंदर पानी भर
जाने के कारण इसका वजन दोगुना भी मान ले तब भी यदि यह दुर्घटना कारवार में होती तो
शायद इसे उठाकर बाहर निकला जा सकता था.चूँकि मुंबई में यह सुविधा नहीं है इसलिए
सिन्धुरक्षक को तत्काल बाहर निकाल पाने का भी सवाल नहीं उठता.
दूसरा
रास्ता यह बचता था कि सिन्धुरक्षक को गैस कटर इत्यादि से काटकर इसमें फँसे हुए
लोगों को निकला जा सकता था लेकिन यह तरीका और भी ज्यादा कठिन होता है क्योंकि पनडुब्बियां
ऐसे खास प्रकार के स्टील से बनाई जाती हैं जिसे काटना तो दूर भेद पाना भी आसान
नहीं होता.दरअसल टारपीडो या इसी तरह के अन्य शस्त्रों के हमले से सुरक्षा के लिए
पनडुब्बी के बाहरी आवरण (खोल) में ऐसी सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है जो अभेद
हो. हमेशा पानी के अंदर रहने वाली पनडुब्बी की संरचना भी इस प्रकार की होती है कि
समन्दर का खारा पानी भी इस पर कोई असर नहीं डाल सकता. इसमें आने-जाने का रास्ता भी
ऊपर की ओर तथा बेहद संक्रीर्ण होता है. यही नहीं,पनडुब्बी के अंदर जगह इतनी कम
होती है कि सिर उठाकर खड़े रहने तक की गुंजाइश तक नहीं होती. आस-पास लगे संहारक
हथियार,अन्य तकनीकी उपकरण,बिजली बनाने से लेकर पानी को साफ़ कर पेयजल में बदलने वाले संयंत्र और समन्दर में
लंबे समय तक रहने के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थों के भण्डारण के कारण इसके अंदर ढंग
से चलने-फिरने का रास्ता भी नहीं बचता.इतनी कम जगह के बाद यदि बच निकालने का
एकमात्र रास्ता भी बन्द हो जाए तो फिर जान बचना असंभव ही है.अभी तक की जांच से पता
चला है कि सिन्धुरक्षक हादसे में भी यही हुआ.अंदर हुए धमाके के कारण बाहर निकालने
का रास्ता बन्द हो गया और भीषण तापमान के कारण अंदर की बनावट तक टेढ़ी-मेढ़ी होकर अपना
मूल आकार खो बैठी. ऐसी स्थिति में न तो कोई अंदर से बाहर आ सकता था और न ही बाहर
से अंदर जाना संभव था. इसके अलावा पानी में डूबी सिन्धुरक्षक की बिजली गुल हो
जाने,अंदर कीचड़-पानी भर जाने और घुप्प अँधेरे ने बचाव दल की मुश्किलें और बढ़ा दी. यही
कारण है कि बचाव में इतना समय लग रहा है.
वैसे इस
हादसे से सबक लेते हुए हमारी नौसेना ने डीप सबमर्जड रेस्क्यू व्हीकल(डीएसआरवी)
खरीदने का फैसला किया है. अमेरिका में तैयार यह एक ऐसा वाहन है जो समन्दर में 600-1500 मीटर नीचे भी राहत और बचाव कार्यों को बखूबी अंजाम
दे सकता है. इसके अलावा इस तरह दुर्घटनाओं के दौरान बचाव कार्यों में निपुण दुनिया
भर के विशेषज्ञों की सेवाएं भी ली जा रही हैं. जो भी हो यह हादसा नौसेना के साथ
साथ देश के लिए भी किसी बड़े सबक से कम नहीं है.
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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!