अक्सर घर की मुंडेर पर
धूप आकर बैठ जाती है
और
देर तलक बैठी ही रहती है
शायद...किसी का इंतज़ार करती है
कभी बिल्कुल ख़ामोश रहती है
और कभी खुद से ही बातें करती है
ज्यों-ज्यों दिन चढ़ता जाता है
त्यों-त्यों उसकी शिथिलता बढती जाती है
मगर आँखों में इंतज़ार की चमक
बरक़रार रहती है
और फिर...
शाम के जवान होते-होते
समेट लेती है खुद को
और चल पड़ती है वापस
उसी ख़ामोशी से
जिस ख़ामोशी से
बैठी थी मुंडेर पर आकर
और छोड़ जाती है
कुछ अनबुझे से,
कुछ अनसुलझे से
निशाँ,
घर की मुंडेर पर !
रविश 'रवि'
फरीदाबाद, हरियाणा
चित्र गूगल से साभार
No comments:
Post a Comment
यहाँ तक आएँ हैं तो कुछ न कुछ लिखें
जो लगे अच्छा तो अच्छा
और जो लगे बुरा तो बुरा लिखें
पर कुछ न कुछ तो लिखें...
निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!