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Sunday, July 7, 2013

धूप के निशाँ


अक्सर घर की मुंडेर पर
धूप आकर बैठ जाती है
और
देर तलक बैठी ही रहती है

शायद...किसी का इंतज़ार करती है
कभी बिल्कुल ख़ामोश रहती है
और कभी खुद से ही बातें करती है

ज्यों-ज्यों दिन चढ़ता जाता है
त्यों-त्यों उसकी शिथिलता बढती जाती है
मगर आँखों में इंतज़ार की चमक
बरक़रार रहती है

और फिर...
शाम के जवान होते-होते
समेट लेती है खुद को
और चल पड़ती है वापस
उसी ख़ामोशी से
जिस ख़ामोशी से
बैठी थी मुंडेर पर आकर

और छोड़ जाती है
कुछ अनबुझे से,
कुछ अनसुलझे से
निशाँ,
घर की मुंडेर पर !  



रविश 'रवि'

फरीदाबाद, हरियाणा
चित्र गूगल से साभार


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