बढ़ गया शैवाल बन
व्यापार काला
ताल का जल
आँखें मूंदे सो रहा
रक्त रंजित हो गए
सम्बन्ध सारे
फिर लहू जमने लगा है
आत्मा पर
सत्य का सूरज
कहीं गुम गया है
झोपड़ी में बैठ
जीवन रो रहा .
हो गए ध्वंसित यहाँ के
तंतु सारे
जिस्म पर ढाँचा कोई
खिरने लगा है
चाँद लज्जा का
कहीं गुम हो गया
मान भी सम्मान
अपना खो रहा।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसाझा करने के लिए आभार...!
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सुखद सलोने सपनों में खोइए..!
ज़िन्दगी का भार प्यार से ढोइए...!!
शुभ रात्रि ....!
बहुत दुखद स्थिति ...गहरी वेदना है ...क्या कहा जाये ...!!
ReplyDeleteसार्थक रचना ...!!
आज की ब्लॉग बुलेटिन देश सुलग रहा है... ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति..
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