सादर ब्लॉगस्ते पर आपका स्वागत है।

Sunday, May 5, 2013

नवगीत

बढ़ गया शैवाल बन 
व्यापार काला 

ताल का जल 

आँखें मूंदे सो रहा 

रक्त रंजित हो गए 
सम्बन्ध सारे
फिर लहू जमने लगा है 
आत्मा पर 
सत्य का सूरज 
कहीं गुम  गया है 
झोपड़ी में बैठ 
जीवन रो रहा .


हो  गए ध्वंसित यहाँ के

तंतु सारे

जिस्म पर ढाँचा कोई
खिरने लगा है
चाँद लज्जा का
कहीं गुम हो गया
मान भी सम्मान
अपना खो रहा।

रचनाकार: सुश्री शशि पुरवार
इंदौर, मध्य प्रदेश 

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    साझा करने के लिए आभार...!
    --
    सुखद सलोने सपनों में खोइए..!
    ज़िन्दगी का भार प्यार से ढोइए...!!
    शुभ रात्रि ....!

    ReplyDelete
  2. बहुत दुखद स्थिति ...गहरी वेदना है ...क्या कहा जाये ...!!
    सार्थक रचना ...!!

    ReplyDelete
  3. आज की ब्लॉग बुलेटिन देश सुलग रहा है... ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  4. सुन्दर प्रस्तुति...!

    ReplyDelete
  5. बहुत सुंदर प्रस्‍तुति..

    ReplyDelete

यहाँ तक आएँ हैं तो कुछ न कुछ लिखें
जो लगे अच्छा तो अच्छा
और जो लगे बुरा तो बुरा लिखें
पर कुछ न कुछ तो लिखें...
निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!