विषय: नारी शोषण
हवा को चीरती थीं
कुछ आवाजें नीर, निस्तेज़
सन्नाटे को छीलता वह एकालाप
एक कं-प-क-पी, बदहवास सी
उसके पखवाज़ में आज
वह शोखी नहीं थी, अल्हड़
जो किसी का मन-मृदंग
मधुशाला कर दे
नेत्र स्तब्ध बेचैन
थी उबड-खाबड़ श्वास
ओठं आक्रोश से भीजे-पसीजे
देह टूटे व्योम सी मौन, उदास
एक फु-स-फु-सा-ह-ट सुनी
अबके वसंत हरी-भरी
उसकी कोख, वैदेही
जानकर उजाड़ दी गयी
संतति के अनचिन्हे, पद्चाप
करते हैं प्रश्न
मनु सभ्यता से साधिकार
और कितनी वैदेही ?
रचनाकार: सुश्री चंद्रकांता
नई दिल्ली
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteशुभकामनायें आदरेया ||