प्रेमिका प्रेमी से नज़रें फिरा बोली-
"कैसे करूँ यकीन तुम पर
कि तुम भी तो
उसी पुरुष समाज के अंश हो
जिसने नारी को नारी न समझ
समझा है केवल एक ऐसी वस्तु
जिसे मनचाहे ढंग से करो इस्तेमाल
हाँ तुम भी तो हो
उसी सड़ी मानसिकता के अभिन्न अंग
जिसने नारी को
जितना नोंचा जा सकता था नोंचा
और फिर फैंक दिया
सड़क के किनारे या फिर
किसी सुनसान पार्क के
किसी अंधेरे कोने में."
प्रेमी ने प्रेमिका का
प्रेम से हाथ पकड़ा और उससे पूछा-
"प्रिये क्या वास्तव में
वे पुरुष ही थे
या फिर पुरुष के वेश में...?
रचनाकार-सुमित प्रताप सिंह
रचनाकार-सुमित प्रताप सिंह
*चित्र गूगल से साभार*
मेरे विचार से जो आज कल प्रेम चल रहा है है वो प्रेम नही एक आकर्षण यानि की वासना है जब की प्रेम सदा सात्विक और वासना रहित होता है और आज कल लड़के लड़किया अपनी वासना को ही प्रेम समझ बैठे है
ReplyDeleteलेकिन इसमें थोडा पुरुष चालाकी दिखा जाता है जो संस्कारहिंन होता है और मुर्ख बना कर छल से पाशविक वृत्ति के अनुरूप वह स्त्री को प्रेम के बदले के रूप में सिर्फ प्रताड़ना देता है!मूल रूप से पुरुष स्त्री को केवल उपभोग करता है, उसे अपनी वासना पूर्ति का माध्यम बनाता है. हॉ, ये जरूर है कि वह बड़ी चालाकी से इसे छुपा लेता है ताकि उसके भोग के रास्ते में कोई रुकावट ना पैदा हो.
लेकिन सब पुरुष ऐसे भी नही होते और सभी लडकिया भी ऐसी नही होती की वो अपना सब कुछ मर्द की खुशी के लिए स्त्री सर्वस्व समर्पण कर दे
नारी के बिना बिल्कुल जग अधुरा है बहुत खेद के साथ कहना पड़ रहा है की भ्रामक प्रचार के फेर में पड़ कर अपने संस्कार और मर्यदा को भूलती जा रही है और बाज़ार के दलदल में फंसती जा रही है अगर ऐसा ही रहा तो आने वाला समय में ऐसा ही प्रेम होगा जिसमे दोनों की बराबर का हिस्सा होगा अगर कोई भी धोखा करता है
शेखर भाई आपको नहीं लगता कि अब समाज को एक जन सुधार आंदोलन की सख्त जरूरत है...
Deleteबहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteशुक्रिया वीरेश जी...
Deleteसु्न्दर भाव
ReplyDeleteशुक्रिया वंदना जी...
Delete@सुमित ......शक और अविश्वास के बादल छाना कोई अनापेक्षित नहीं आज कल की परिस्थिति में जहाँ ......कभी भी ,कोई भी मर्द आपकी अस्मत पर वार कर सकता है .....सटीक ,सवालों को शब्द देती अभिव्यक्ति
ReplyDeleteशुक्रिया पूनम जी...
Deleteशुक्रिया सुषमा जी...
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