बहुत दिन गुज़र गए पर अपनी मुंडेर पर कोई कागा अर्थात कौआ काँव-काँव करते नहीं दिखा। एक वो भी दिन थे जब अक्सर कौए काँव-काँव करते मुंडेर पर दिख जाते थे और हम बालक चीखते हुए उनसे कहते थे ‘उड़ जा कौआ चाचा आते हों’ या फिर ‘उड़ जा कौआ मामा आते हों’। सच कहें बेशक हम इतने बड़े हो गए लेकिन बचपन दिल में अभी भी जीवित है और ये बचपन अक्सर जिद करता है कि हमारी मुंडेर पर कोई कौआ आकर बैठे और जोर से काँव-काँव करे और फिर हम चीखकर बोलें ‘उड़ जा कौआ कोई अपना आता हो’। पर दिल की बात दिल में ही रह जाती है और कोई कौआ मुंडेर की ओर मुंह भी नहीं मारता और ये बचपन दिल के भीतर ही बैठा हुआ तड़पता रहता है। आजकल कौए भी ईद के चाँद बन चुके हैं वो साल में दो बार दिख भी जाता है लेकिन ये कौए तो साल में एक ही बार दीखते हैं वो भी श्राद्धों में। आखिर कौओं ने घर पर आना और आकर मुंडेर पर बैठकर काँव-काँव करने की परम्परा का त्याग क्यों कर दिया? कहीं उन्हें भी कलियुगी संस्कृति ने अपनी छत्रछाया में जगह तो नहीं दे दी जो वो दूत बनना छोड़कर यूँ अचानक लापता हो गए। फिर मन सोचता है कि कौए बेचारे भी क्या करें आज के युग में बेटा बाप का नहीं रहा, भाई को भाई फूटी आँख नहीं सुहाता तो रिश्तेदार अपने दूसरे रिश्तेदारों को सीधी आँख भला कैसे देख सकते हैं? जैसे-जैसे समय बीत रहा है, लोगों की आशाएँ विशाल और ह्रदय सिकुड़कर छोटे होते जा रहे हैं और उन सिकुड़ते हृदयों में रिश्तेदार तो कभी रह ही नहीं सकते। पहले रिश्तेदार एक दूसरे के सुख-दुःख के साथी होते थे। मुसीबत के समय अपने रिश्तेदार के कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े हो जाना सच्चे रिश्तेदार की निशानी होती थी। पर समय के कोल्हू ने रिश्तेदारी को ऐसा पेरा कि न तो सच्ची रिश्तेदारी सलामत बची और न ही सच्चे रिश्तेदार। छोटे-छोटे स्वार्थ की खातिर रिश्तेदार का राम नाम सत्य तक कर देने को तत्पर रिश्तेदारों को रिश्तेदारी का र भी ठीक ज्ञात नहीं रहा हो तो कौए बेचारे क्या करें? वो कैसे पता लगायें कि घर आनेवाला वाकई में रिश्तेदार है क्योंकि उसके हृदय में तो रिश्तेदारी नामक तत्व पहले ही तार-तार हो चुका मिलता है। शायद इसीलिए कोई कौआ भूले-भटके घर की मुंडेर पर बैठ भी जाए तो किसी रिश्तेदार के आने की सूचना देने को काँव-काँव नहीं करता। असल में उसे रिश्तेदार के दिल में वो पुराना प्रेम व स्नेह दिखाई ही नहीं देता इसलिए उसके भीतर काँव-काँव कर ख़ुशी मनाने की भावना भी दम तोड़ देती है। इसलिए कौओं ने अब काँव-काँव करना छोड़ दिया है। शहरों में बड़े-बड़े मकानों और संकुचित दिलों वाले भले लोग भी भला कहाँ कामना करते हैं कि कोई कौआ काँव-काँव करे और कोई रिश्तेदार आ टपके तथा उनकी व्यस्तता में खलल डाल दे। इसलिए उन्होंने अपने घर की मुंडेर पर काँच या लोहे के कंटीले तार लगाकर कौओं को वहाँ बैठने से अवरुद्ध कर दिया। अब कौओं को भी मुंडेर पर काँव-काँव कर मेहमान या रिश्तेदार के आने का संदेशा देने का चाव नहीं रहा है। अब वे अपना समय या तो किसी लाश का माँस नोंचने में व्यतीत करते हैं या फिर मनुष्य का वेश धरकर किसी सदन में जाकर काँव-काँव करने लगते हैं।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
No comments:
Post a Comment
यहाँ तक आएँ हैं तो कुछ न कुछ लिखें
जो लगे अच्छा तो अच्छा
और जो लगे बुरा तो बुरा लिखें
पर कुछ न कुछ तो लिखें...
निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!