सिलचर में एक साल हो
गया. 11 फरवरी 2014 को आकाशवाणी, सिलचर में अपना कार्यभार संभाला था.
पता ही नहीं चला कैसे इतना वक्त बीत गया. अभी की ही तो बात लगती है जैसे चंद हफ्ते
या महीने पहले यहाँ आना हुआ है. इस बारे में दोस्तों का कहना है कि जब काम में मन
रम जाए या फिर मनपसंद काम करना हो तो समय कैसे गुजर जाता है इसका पता नहीं चलता.
हो सकता है यह भी एक कारण हो या फिर अपनी घुमंतू प्रवृत्ति या फिर परिवार का साथ
या फिर सिलचर के लोग,नए दोस्त,आकाशवाणी का स्टाफ,यहाँ का वातावरण....कुछ तो है
जिसने सालभर एक अनजान शहर में,अपने घर और अपने जानने वालों से ढाई-तीन हजार
किलोमीटर दूर रहने के बाद भी वक्त का अहसास ही नहीं होने दिया.
शायद पूर्वोत्तर के लोगों
की सहजता,सरलता,अपनापन और मिलनसारिता ने घर की,अपनों की याद नहीं आने दी. मजे की
बात तो यह है कि दिल्ली में पांच दिन काम करने के बाद दो दिन की छुट्टी मिलती थी
और आए दिन पड़ने वाले तीज-त्यौहार की छुट्टियाँ अलग मिलती थी,फिर भी कहीं न कहीं एक
दबाव सा महसूस होता था..शायद भीड़ का,लाखों की संख्या में वाहनों का,बस से लेकर
मेट्रो तक में धक्कामुक्की का और घंटों के जाम का. पर यहाँ न तो उतनी भीड़-भाड है
और न ही दिल्ली की तरह की चिल्लपों. न्यूज़ सेक्शन में अकेले पीर-भिश्ती-बाबर्ची
(न्यूज़ की भाषा में संपादक, रिपोर्टर, कम्प्यूटर आपरेटर) का दायित्व सँभालने और
बिना किसी छुट्टी के सालभर गुजार देना...कुछ तो है जिसने अहसास नहीं होने दिया.
यहाँ जब तबादला हुआ तो अपन
ने भी गूगल मेप में जाकर पहली बार सिलचर को जाना था. फिर किसी ने असम के हालात
समझाए तो किसी ने रसूख का इस्तेमाल कर तबादला रुकवाने का परामर्श दिया लेकिन रेलवे
में आए दिन तबादलों से दो-चार होते रहे पापा(पिताजी) ने जाने का हौंसला दिया और
दिल्ली से ऊब रही पत्नी ने मानसिक सहारा,बस फिर क्या था अपन भी निकल पड़े और आज
सालभर बाद यह महसूस हो रहा है कि यदि यहाँ नहीं आते तो शायद गलती करते, देश के एक
अटूट हिस्से को जानने-समझने से वंचित रह जाते.
यहाँ सब-कुछ नया सा लगा
मसलन सुपारी से लेकर अनन्नास(पाइन एप्पल) तक के अनजाने पेड़,चाय के लम्बे-चौड़े
बागान,बांस,असम शैली में बने घर,भाषा,खान-पान,सूखी मछलियाँ और बिना जैकेट-रजाई के
ठण्ड का मौसम. सुबह की सैर(मार्निंग वाक) के दौरान आधे शहर को देख लेने का उत्साह
और बिग बाज़ार,विशाल मेगामार्ट,गोलदिघी,नाहटा,डिजीटल सिनेमा जैसे माल नुमा
बाजारों-सिनेमाघरों में मनोरंजन की तलाश. जिन्होंने अब तक साल बीत जाने का अहसास
ही नहीं होने दिया.
ऐसा नहीं है कि सिलचर में
सभी कुछ ‘हरा-हरा’ है. यहाँ भरपूर काला धुंआ उगलती गाड़ियाँ हैं तो धूल से पटी
सड़कें, बेतरतीब चलते वाहन हैं तो सामान्य से कई गुना महँगी दरों पर मिलता सामान, उमस
वाली गर्मी है तो नाक में दम कर देने वाली बारिश भी, डाक्टरों को दिखाने के लिए
सुबह 4 बजे से लगती लाइनें हैं तो सड़कों पर सरेआम पान-तम्बाखू उगलते और बेशर्मी से
मूत्र विसर्जन करते लोग...फिर भी कुछ तो है जिसने सालभर गुजार लेने का अहसास नहीं
होने दिया.
एक साल बिताने के
बाद,मैं,यह बात दावे से कह सकता हूँ कि रसूख का इस्तेमाल कर तबादला रुकवाने की
बजाए यहाँ आकर मैंने गलती नहीं की. यदि यहाँ न आता तो शायद छोटे शहर में महानगरों
जैसी सुविधाओं को नहीं जान पाता..बस और सालभर बाद शुरू होगी तलाश भविष्य के लिए
पूर्वोत्तर जैसे ही देश के किसी दूसरे हिस्से में जाने और उसे जानने की.
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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!