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Friday, November 8, 2013

कहानी: मामा

   बाजार से सामान लेकर घर के आँगन में  घुसा ही था, कि मन कुछ देखकर प्रफुल्लित हो उठा. घर की चौखट से कुछ पहले ही कीचड़ से सने हुए जूते उतरे हुए थे. अनुमान लगाया हो न हो मामा आ हुए हैं. घर में प्रवेश किया तो अनुमान ठीक निकला. मैले-कुचेले  कपड़ों और स्वच्छ निर्मल ह्रदय धारण किये हुए मामा जी कुर्सी पर विराजमान थे. मुझे देखते ही उठकर मेरे चरण छुए और अपने स्थान पर बैठ गये. मन ने उन्हें ढेरों आशीष दिये. मामा इतने सालों में बिलकुल भी नहीं  बदले थे. वही भोलापन और वही अपनापन. मेरी माँ के तीन सगे भाई हैं. चचेरे-फुफेरे भी कई हैं, लेकिन इन मुंह बोले भाई से सभी कुछ कम ही हैं. चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाये, मामा प्रत्येक रक्षाबंधन को हमारे घर उपस्थित ही मिलेंगे. एक-दो बार मामा जी को रक्षाबंधन के दिन सूनी कलाई लेकर लौटना पड़ा था, क्योंकि माँ अपने सगे भाइयों को राखी बाँधने अपने मायके गई हुई थीं. फिर भी मामा की निरन्तरता में कोई कमी नही आई. जब हम सब छोटे थे तो हम मामा की  बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा करते थे, क्योंकि मामा जाते हुए हमें 10 रूपये देते थे जो उन दिनों बहुत अधिक थे. उन दिनों मामा हमारे घर से कुछ दूर ही रहते थे और महीने में एक बार अपनी मुंहबोली बहन अर्थात माँ से मिलने आ ही जाते थे और हमारी 10 रुपए की मासिक कमाई भी करवा देते थे. माँ थोड़ा उदास हो मामा को टीका करने व उन्हें राखी  बाँधने के लिए थाली लाईं. उनकी उदासी का कारण था उनके सगे भाइयों द्वारा रक्षा बंधन पर दिल्ली न आना. भाइयों ने अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला देकर हर वर्ष की भांति इस बार भी समाचार भिजवाया था, कि दिल्ली आने का किराया बहुत लगता है सो नहीं  सकते. पिछले रक्षाबंधन पर माँ के एक फुफेरे भाई ने माँ को ताना मारा था, कि माँ उसे राखी नहीं भेजतीं . माँ ने रक्षाबंधन पर डाक द्वारा उसे राखी भेज दी तथा जब फोन करके पूछा कि राखी उसे मिल कि नहीं तो वह बोला कि राखी मिल गई है तथा वह राखी के पैसे दिल्ली आकर देगा. माँ का उस दिन दिल टूट गया था और पूरे दिन दुखी हो उन्होंने खाना भी नहीं खाया था. उनका दूसरा फुफेरा भाई दिल्ली में ही रहता है. पूरे साल वह फोन करके माँ और हम सबका हाल-चाल लेता रहता है, किंतु  राखी वाले दिन वह पाताल लोक के जाने किस कोने में गायब हो जाता है. माँ का फिर भी यही मानना है कि पराये पराये ही होते हैं और सगे सगे ही, किन्तु मामा ऐसा नहीं सोचते. माँ ने टीका करके मामा के राखी बांधी. मामा बहुत प्रसन्न लग रहे थे और थके भी. शायद यहाँ तक पैदल आते -आते बहुत थक गये थे. पहले जब पास ही रहते थे तो हर महीने ही हम मामा से मिलते थे, परन्तु जब से यहाँ की झुग्गियां टूटी उनका कबाड़े का काम चौपट हो गया और वो यहाँ से बहुत दूर जाकर रहने लगे. एक -दो बार यहाँ आने के लिए बस में बैठे तो दिल्ली में ही खो गए. सो बस में बैठने का खतरा मोल लिए बिना वह पैदल ही आना ठीक समझते हैं. उनके घर से हमारे घर की दूरी लगभग 30 किलोमीटर है, किन्तु  अपनी बहन के आगे यह दूरी उनके लिए बहुत ही कम है. मामा से बातचीत कर उनके व उनके परिवार के हाल-चाल लिए. मामा ने बताया कि उन्होंने कबाड़े का काम छोड़कर सब्जी  बेचना आरंभ कर दिया था. मामी की तबियत अब ठीक नहीं रहती थी. बड़ा बेटा चोरी-चकारी में समय व्यतीत करने लगा था, मंझले बेटे ने अपनी पहली पत्नी उनके सहारे छोड़ दूसरा विवाह कर लिया था तथा अलग मकान लेकर न जाने कहाँ रहने लगा था. बेटी का विवाह अच्छे घर में तो हो गया था, किंतु उसका पति भी उसे तंग करता रहता था. इतने दुःख व परेशानियों के  बीच भी मामा का मुखमंडल कितना शांत था. माँ ने मामा को विदा करना चाहा, किन्तु  बहन मामा के लिए खाने की थाली परोस कर ले आई. आज मामा बहुत भूखे थे. जानने पर पता चला, कि वह राखी बंधवाने के लिए सुबह भूखे पेट ही यहाँ चले आये थे. मामा जाने लगे तो उन्होंने माँ को राखी के उपहार स्वरूप कुछ धन दिया. बहनों को भी दक्षिणा मिली. मामा मुझे देखकर कुछ सकुचाने लगे. शायद उनके पास जेब में कुछ नहीं  बचा था. मैंने मामा को भेंट स्वरुप उनके लिए हाल ही में खरीदा कुर्ता-पायजामा देना चाहा, तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया. कारण था यह रिवाज कि मामा यदि भांजे से कुछ लेंगे तो नरक में जाना पड़ेगा. हम सभी मामा को घर के बाहर तक छोड़ने गए और तब तक घर के बाहर नम आँखे लिए खड़े रहे, जब तक मामा का वह भोला-भाला मानव रूप हमारी नज़रों से ओझल नहीं  हो गया.
सुमित प्रताप सिंह 
इटावा, नई दिल्ली, भारत 
चित्र: इरा टाक 

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
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