पिता बेटी
की आँखों में देखता
सपने, कल्पनाएँ
अन्तरिक्ष
में उड़ानों के
पंख
संजोता सपनों में ।
मन ही मन
बातें करता
बुदबुदाता
मेरी बेटी
का ध्यान रखना
जानता हूँ
अन्तरिक्ष में
मानव नहीं
होते
इसलिए हैवानियत का
प्रश्न
नहीं उठता ।
पिता हूँ
फिक्र है
मुझे
बड़ी हो
चुकी बेटी की
छट जाते
है, जब भ्रम
के बादल
तब दूर से
सुनाई देती है
भीड़ भरी
दुनिया में
उत्पीडन
की आवाजें
उन्हें
रोकने का बीड़ा उठाती
बेटी की
आक्रोशित आँखे ।
देती
चीखों के उन्मूलन का
देखता हूँ
विस्मित नज़रों से
फिर से
संजोये सपनों को
बेटी की
आँखों में
उडान
उत्पीडन
से निपटने की
हौसलों व कल्पनाओं के साथ ।
संजय
वर्मा "दृष्टि"
१२५, शहीद भगत सिंह मार्ग
मनावर, जिला- धार (म. प्र.)
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