देखा जो खुद के अक्स को
आईने में.....
कुछ था खोया-खोया सा
बहुत कुरेदा उसे
बहुत परोसा उसे
कुछ तो बोले
मुँह तो खोले....
पर न वो हिला, न डुला
बना रहा यूँ ही एक बुत....
देखता रहा एक टक मुझे
बिना पलक झपकाए...
ख़ामोशी से.....
पर न बोला वो
एक भी शब्द......
तमाम कोशिशें रहीं असफल
खुद के अक्स को पहचानने की....
उसे समझाने की......
न जाने क्यूँ हुआ एहसास
खुद से खुद को
अज़नबी होने का !!!!
रविश 'रवि'
फरीदाबाद
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सुमित प्रताप सिंह,
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