इसकी खुरदुरी हथेलियाँ
बताती है कि
यह एक कामगार है !
कामगार सृजनहार होता है
इसकी हथेली में कैद हैं
चमकीली सीपियाँ
कही यह रचनाकार तो नहीं ?
रोज-रोज गढ़ता है नया
फिर उसे मिटाता है !
मिट्टी को मिटटी में मिलाता है
कही यह कुम्हार तो नहीं ?
इसकी हथेली की
मोटी-मोटी लकीरें
लोहे की छड जैसी
हो गयी हैं
लोहा लोहे को काटता है
यह भी काटेगा
सदियों से जकड़ी जंजीरें
कही यह लुहार तो नहीं ?
रुखी-सूखी हथेलियों से
उठायी बोझों की टोकरियाँ
भूख की आग से जल रही हैं
पेट की आंतडियां
सिकुड़ कर हो गयी
जैसे गली संकरी
चराते हुए बकरियां
दीमक ने खा ली है पसलियाँ
कही यह इंसान तो नहीं ?
रचनाकार: डॉ. सरोज गुप्ता
BEHATAREEN ,BAHUR KHOOB,SADAR
ReplyDeleteआज की ब्लॉग बुलेटिन गुरु और चेला.. ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबेहद उम्दा |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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