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Wednesday, February 12, 2014

कविता: कुम्हलाया मन का सरोवर

बागों बहारों और खलिहानों मे

बांसो बीच झुरमुटों मे
मधुवन और आम्र कुंजों मे
चहचहाते फुदकते पंछी
गाते गीत प्रणय के
श्यामल भौंरे और तितलियाँ
फुली सरसों , कुमुद सरोवर
नाना भांति फूल फूलते
प्रकृति की गोद ऐसी
फलती फूलती वसुंधरा वैसी
क्या कहूँ किन्तु कुम्हलाया
है मन का सरोवर मेरा
भावों के दीप झिलमिलाये ऐसे
रागिनी मे  कुछ जुगुनू  जैसे
नेह का राग सुनाता
जीवन को निःस्वार वारता
 एक पतंगा हो जैसे
प्रकंपित अधर है शुष्क
ज्यों पात विहीन वृक्ष ।

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