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Thursday, December 5, 2013

कविता: अकुला रही सारी मही

अकुला रही सारी मही
किसको पुकारना है सही ।  
सोच रही अब वसुंधरा
कैसा कलुषित समय आ पड़ा 
बालक बूढ़े नौजवान
गिरिवर तरुवर आसमान
रक्षा को उठता न कोई
अकुला रही .............

अखंड भारत सपना
देखा था ये अपना
खंडित होकर बिखर रहा
जन मानस को न अखर रहा
राष्ट्रभक्ति नीर में जा बही
अकुला रही .................

ढूँढने पर भी अब मिलते
राम कृष्ण से पुरुषोत्तम नहीं
अर्जुन कर्ण गदाधर भीम नहीं
भगत सुभाष से नायक नहीं
अकुला रही .............

रण बांकुरों से वसुंधरा
हर युग मे अल्हादित रही
किन्तु अहो ! क्या कोई
बचा अब बांका लाल नहीं
अकुला रही .............  

अन्नपूर्णा बाजपेई
कानपुर, उत्तर प्रदेश 

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