ग़ज़ल
इस मतलबी जहां के तलबगार हम नहीं
दिल की सुनें सदा, करें व्यापार हम नहीं |
चाहा तुझे, पूजा तुझे , माना खुदा तुझे
ये बात और है कि तेरा प्यार हम नहीं |
तू ऐतबार कर, जान पर खेल जाएंगे
वादा करें , निभाएं न , सरकार हम नहीं |
अपने उसूल छोड़ दें मंजूर कब हमें
हर बात पर झुके जो, वो किरदार हम नहीं |
आजाद कर रहे तुझे कसमे-वफा से हम
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं |
है प्यार तो गुनाह यहाँ , रीत है यही
कैसे कहें कि विर्क गुनहगार हम नहीं |
रचनाकार: श्री दिलबाग विर्क
सिरसा, हरियाणा
आभार.....
ReplyDeleteसुन्दर अनुभूति प्रस्तुत करती रचना,दिलबाग जी बधाई!
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