समाज
और मीडिया में इन दिनों समाज के सभी तबकों एवं खासकर महिलाओं को समान अधिकार देने
को लेकर बढ़-चढ़कर बातें पढने और सुनने को मिल रही हैं. कई बार तो ऐसा लगने लगता है
मानों पूरा समाज एकाएक सुधारक में तब्दील हो गया हो लेकिन क्या मीडिया की खबरों से
महिलाओं को न्याय मिल सकता है या एकाध किस्से से कोई बदलाव आ सकता है. न्याय का
अर्थ है समाज में सभी के साथ समानता और समता का व्यवहार, सभी को उनके वांछित
अधिकार प्रदान करना और किसी के साथ अन्याय नहीं होने देना. लेकिन विचार करने वाली
बात यह है कि क्या बात हम पर,हमारे समाज पर और हमारे देश के सन्दर्भ में भी सटीक
बैठती है? क्या हम अपने देश,समाज और यहाँ तक की घर में सभी के साथ समता और समानता
का व्यवहार करते हैं? यदि ऐसा है तो फिर बाल मजदूरी, बड़ी संख्या में लोगों का अनपढ़
होना और अमीरी-गरीबी के बीच इतना अंतर क्यों है?
सबसे
बड़ी बात तो यह है कि क्या हम अपनी आधी आबादी यानि महिलाओं को भी समाज में समानता
का दर्जा दे पाए हैं? महिलाओं को काली,सरस्वती और लक्ष्मी बनाकर पूजना अलग बात है
और वास्तविक जीवन में समानता का व्यवहार अलग. इससे समाज की कथनी और करनी में अंतर
का पता भी चलता है क्योंकि यदि हमारी सोच और व्यवहार में समानता आ जाए तो सभी को
न्याय का सपना साकार होने में देर नहीं लगेगी.
हमारे
प्रधानमंत्री ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ और ‘सेल्फी विथ डाटर’ जैसे तमाम प्रयासों के
जरिये इसी सामाजिक समानता की बात तो कर रहे हैं पर हम उनके कहने पर सेल्फी पोस्ट
करने में तो देर नहीं करते परन्तु जैसे ही बेटी-बेटे की बारी आती है तो बेटियों के
साथ भेदभाव करने में भी देर नहीं करते. आखिर बलात्कार, छेड़छाड़, कन्या भ्रूण हत्या
या कोख में ही लड़कियों को मार देना, दहेज़ के नाम पर जलाना और अच्छी शिक्षा से
वंचित रखकर लड़कियों को चूल्हे-चौके में झोंक देना अन्याय नहीं तो क्या है.
ऐसा
नहीं है कि समाज को इस अन्याय और समानता का खामियाजा नहीं भुगतना पड़ रहा है
लड़कियों की घटती संख्या के कारण हरियाणा में कई लडकों की शादी नहीं हो पा रही है
और कई के लिए तो केरल जैसे राज्यों से दुल्हन लानी पड़ रही हैं वरना वंश कैसे
चलेगा. आश्चर्य की बात तो यह है कि हमें माँ,पत्नी और बहन तो चाहिए परन्तु बेटी
नहीं चाहिए. सोचिए, अब यदि बेटी ही नहीं होगी तो फिर हमें भविष्य में माँ ,बहन या
पत्नी कैसे नसीब होगी? मेरे कहने का आशय यह है कि
जब तक हम अपने कार्य-व्यवहार में भी इन बातों को नहीं अपना लेते तब तक समाज
से असमानता और अन्याय ख़त्म नहीं हो सकता. जिसका
परिणाम भी हमारे सामने आता जा रहा है इसलिए अभी वक्त है सँभालने का,सुधारने का और
पहले से चली आ रही गलतियों को ठीक करने का..वरना ज्यादा देर हो गयी तो हम सुधार का
मौका भी गँवा देंगे.हम एक ओर बेटी को देवी का स्वरुप मानते है,दूसरी ओर उसे हर कदम
पर सिवाय उपेक्षा के कुछ नहीं देते,आज के समाज में बराबरी के दर्जे की बात होती
है.पर वाकई इसे अपनाने के लिए क्या हम अपना मन बना पाए है,शायद नहीं वो भी इसलिए क्योंकि
सदियों से चले आ रहे पुरुषप्रधान समाज में पुरुष के अहम के आगे सब धूमिल हो रहा है
पर क्या हमारा समाज पुरुष अहम् को छोड़ने को तैयार होगा?जब तक पुरुषों की मानसिकता
में बदलाव नहीं आता तब तक बेटियों और महिलाओं को न्याय और समानता दिलाने की बात
मीडिया और कागज़ों पर ही सिमट कर रह जाएगी.
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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!