अँधियारी रातों में ये मन
दूर देश तक हो आता है
कभी ढ़ूढ़ लेता अवसादें
अपने अन्त: मे अनजानी
कभी मोर पंखों पर चढ़कर
नील गगन में फिरे अमानी
मान-अमान भरे पलछिन के
अपने पन मे खो जाता है ।
कभी दौड़ना चाहे खुलकर
लेकिन पग सोए रहते हैं
आस- निराश भरे लम्हों में
अनदेखे साए पलते हैं
परछाई के मोहपाश मे
हँसता-हँसता रो जाता है ।
कभी शाह अपनी मर्जी का
नूतन अपनें रूप दिखाए
दीन-हीन बन कभी उतरकर
आसमान से नीचे आए
धूप - छाँव के गलियारे में
मस्त कलंदर सो जाता है ।
पाप-पुण्य की जड़ता छाई
अवचेतन के मृदु भावों में
नाव नदी की लहर ले चली
चेतनता के सद्भावों में
भाव-कुभावों की झंझा में
बीज कर्म के बो जाता है ।
दूर देश तक हो आता है
कभी ढ़ूढ़ लेता अवसादें
अपने अन्त: मे अनजानी
कभी मोर पंखों पर चढ़कर
नील गगन में फिरे अमानी
मान-अमान भरे पलछिन के
अपने पन मे खो जाता है ।
कभी दौड़ना चाहे खुलकर
लेकिन पग सोए रहते हैं
आस- निराश भरे लम्हों में
अनदेखे साए पलते हैं
परछाई के मोहपाश मे
हँसता-हँसता रो जाता है ।
कभी शाह अपनी मर्जी का
नूतन अपनें रूप दिखाए
दीन-हीन बन कभी उतरकर
आसमान से नीचे आए
धूप - छाँव के गलियारे में
मस्त कलंदर सो जाता है ।
पाप-पुण्य की जड़ता छाई
अवचेतन के मृदु भावों में
नाव नदी की लहर ले चली
चेतनता के सद्भावों में
भाव-कुभावों की झंझा में
बीज कर्म के बो जाता है ।
रचनाकार- डॉ. जय शंकर शुक्ला
संपर्क- बैंक कालोनी, दिल्ली।
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