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Thursday, May 7, 2015

अँधियारी रातों में

अँधियारी रातों में ये मन 
दूर देश तक हो आता है 
कभी ढ़ूढ़ लेता अवसादें 
अपने अन्त: मे अनजानी 
कभी मोर पंखों पर चढ़कर
नील गगन में फिरे अमानी
मान-अमान भरे पलछिन के
अपने पन मे खो जाता है 

कभी दौड़ना चाहे खुलकर
लेकिन पग सोए रहते हैं 
आस- निराश भरे लम्हों में 
अनदेखे साए पलते हैं 
परछाई के मोहपाश मे
हँसता-हँसता रो जाता है 

कभी शाह अपनी मर्जी का
नूतन अपनें रूप दिखाए 
दीन-हीन बन कभी उतरकर
आसमान से नीचे आए 
धूप - छाँव के गलियारे में
मस्त कलंदर सो जाता है 

पाप-पुण्य की जड़ता छाई
अवचेतन के मृदु भावों में
नाव नदी की लहर ले चली
चेतनता के सद्भावों में 
भाव-कुभावों की झंझा में
बीज कर्म के बो जाता है 


रचनाकार- डॉ. जय शंकर शुक्ला 
संपर्क- बैंक कालोनी, दिल्ली

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