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Tuesday, October 6, 2015

कविता : थू


यूँ तो रोज ही
जंगपुरा फ्लाईओवर से
आना-जाना अच्छा लगता है
और अच्छे लगते हैं
फ्लाईओवर के बीचों-बीच
दाना चुगते और
एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते
वहाँ मौजूद शरारती कबूतर
वहीं मिल जाते हैं
स्नेहवश अथवा विवशता में
उन कबूतरों को
दाना डालते कुछ लोग
पर आज फ्लाईओवर से
गुजरते हुए जब दिखा
रोम-रोम कंपानेवाला वह दृश्य
तो आँखें अचानक ही डबडबा गयीं
दाना चुगते कबूतरों के बीच
एक बूढ़े आदमी को
चुगते देखा कई दिनों की
बासी और लगभग सड़ चुकी रोटी
तो आत्मा पीड़ा से कराह उठी
और वह पीड़ा थूक का रूप धर
निकल पड़ी मुँह से एकदम ही
सबसे पहले थूका खुद पर
फिर प्रशासन और समाज पे
जो हमारे रहते हुए भी
एक आदमी भूख से
इतना हुआ विवश कि
उस विवशता ने
सड़ी-गली रोटी खाने को
उसको विवश कर डाला
हमने अपने नफे के लिए
बाँट डाला खुद को
जाने कितने धर्मों और
अनगिनत जातियों में
जिनके लिए हम
कर रहे हैं नित नए संघर्ष
जबकि असल में बंटा है
समाज सिर्फ भागों में
भुखमरे और पेटभरे लोगों के बीच
पेटभरे लोग अपने पेट को
अधिकाधिक भरने की खातिर
भुखमरे लोगों को मृत्यु की ओर
धीमे-धीमे धकेले जा रहे हैं
सच कहूँ तो भुखमरों का
हक़ छीनेवाले पेटभरों को
देखकर कभी-कभी
होता है बड़ा क्षोभ
और जी करता है कि
अपने भीतर की
सारी पीड़ा और सारा क्षोभ
पूरी शक्ति से लाऊँ
मुँह में थूक के रूप में
और इन दुष्टों के मुँह पर
जोर से करूँ
एक नहीं बल्कि
कई -कई सौ बार
थू।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

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