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Wednesday, September 3, 2014

ग़ज़ल


मुझको आवाज़ देकर जगाता है वो।
रहगुज़र* पुरखतर* है बताता है वो।।
ऐसा रिश्ता मेरे उसके है दरमियाँ।
जो मैं ज़िद भी करूँ मान जाता है वो।।
भूखा सो जाऊँ मैं तो उठाकर मुझे।
अपने हाथों से खाना खिलाता है वो।।
बाँध पाया न कुछ उस सफर के लिए।
हौसला मेरा फिर भी बढाता है वो।।
मेरे घर भेजता है कभी रहमतें।
और कभी अपने दर पर बुलाता है वो।।
मैं तो मतलब निकलते ही भूला उसे।
राह माकूल* फिर भी दिखता है  वो।।
रंग सपनों के उड़ने लगें जब ‘असर’।
मेरे सपनों को खुद ही सजाता है वो।।

*रहगुज़र - रास्ता, 
पुरखतर - खतरों से भरा 
माकूल - उचित  
© प्रमोद शर्मा ‘असर’
हौज़ खास, नई दिल्ली 

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सुमित प्रताप सिंह,
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