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Sunday, April 27, 2014

मयख़ाने का दर्द....

देता है दवा जो दर्द को
वो मयखाना मुफ्त में बदनाम हुआ,
दे कर सुकूँ टूटे हुए दिलों को          
मयख़ाने को दर्द का एहसास हुआ |

चढ़ा के ग़म के सलीबों पर
जब भी ज़माने ने ठुकराया है,
गैरों को भी अपना मान कर
मयख़ाने ने उसको गले लगाया है |

हो वाईजचारागर या फिर मुफलिस
हर कोई साथ-साथ बैठता है,
देते हैं सहारा सब मिल कर
जो भी यहाँ लड़खड़ाता है |

 धर्म देखता है और न जात-पात
मयखाना तो दिल के रंज  देखता है,
काबे में करे सजदा या बुतखाने में पूजा
हो जाता है हमसफ़र जो भी यहाँ आता है,

न करो बदनाम मयख़ाने को
ये तो दिलों को जोड़ता है,
पहुंचा कर सुकूँ सबको 
खुद बदनामी की चादर ओढ़ता है |

न होते मयख़ाने तो
रिंद कहाँ जाते ?
न होते मयख़ाने तो ,
दिल-दीवाने कहाँ जाते !

न करते ग़म गलत
तो कैसे जी पाते,
बिन पिये, बिन जिये

यूँ ही मर जाते |

रविश 'रवि
फरीदाबाद

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!