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Saturday, March 8, 2014

लोकपाल यानी भ्रष्टपाल एक सतत सवाल

  रकारी लोकपाल बना लिया गया। संसद और राज्यसभा में पास करने हेतु फिर भेजा जाएगा। वहां नेतागण फिर नूरा कुश्ती लड़ेंगे। बारंबार सदन चलने नहीं देंगे। सी बी आई को लोकपाल के दायरे में नहीं लाया गया है। दिल से कोई दल नहीं चाहता कि सी बी आई स्वतंत्र हो जाए। उस पर सरकार का नियंत्रण न रहे। भ्रष्टाचार की काली कोठरी में जहां एक तरफ अफसर हैं, कर्मचारी हैं, वहीं नेतागणों की जमात भी है। चोर-चोर मौसेरे होते हैं। न मैं पकडूँ तोय, न तू पकड़े मोय! यह सतत चलने वाला खेल है। चलेगा, चलता रहेगा। इसलिए सरकारी लोकपाल एक चूं-चूं का मुरब्बा बना दिया गया। अन्ना, केजरीवाल एंड कंपनी, जनताजनार्दन को दिखा दिया गया कि हमने जो वायदा किया था कि लोकपाल बिल इसी बजट सेशन में पारित करने के लिए सदन में रखा जाएगा, वह पूरा कर दिया जाएगा। अब यह संसद पर निर्भर है कि उस चूं-चूं के मुरब्बे को सही मानती है या नहीं। सरकार का काम सदन में रखना है। पास तो संसद ही करेगी! बेचारी सरकार और क्या कर सकती है? जो कर सकती है, वह कर दिया है।
असल में भ्रष्टाचार एक ऐसा मर्ज है जो हर तबके, हर संस्था, हर आदमी के भीतर जड़ें जमा चुका है। कोई इससे अछूता नहीं बचा है। जिन्हें भ्रष्टाचार करने का मौका नहीं मिला, सिर्फ वही भ्रष्ट नहीं हुए हैं, बाकी जिन्हें एक पैसे की भी बेईमानी करने का अवसर मिलता है, वे उस एक पैसे के लिए भी सारी नैतिकताएं, सारी मान्यताएं ताख पर रख देते हैं। यह कड़वी सामाजिक सचाई है जिसे हमें स्वीकार लेनी चाहिए।


बंगारू लक्षमण का वह वाक्य पाठक भूले नहीं होंगे जो स्टिंग आपरेशन के वक्त उनके मुंह से निकला था--पैसा खुदा तो नहीं है लेकिन खुदा से कम भी नहीं है! तो प्रिय पाठक, लोकपाल बना लें, कितने ही कानून बना लें, जो कैंसर देश की नस-नस में फैल चुका है, उससे आप किसी तरह नहीं बच सकते। इसलिए मान लीजिए कि न भ्रष्टाचार कम होगा, न मंहगाई कम होगी, न अपराध घटेंगे। न बलात्कारों की वारदातें रुकेंगी, न नेताओं-अफसरों-बाबुओं की मक्कारी, लेटलतीफी और जनता की अनदेखी रुकेगी। सब ऐसे ही चलता रहेगा।

जरूरत है, आदमी के चरित्र को बदलने की। और चरित्र कोई बदलने को तैयार नहीं है। सब चाहते हैं, वे खुद तो सब तरह के अपराध करते रहें, पर दूसरे हरिश्चन्द्र बन जाएं। ईमानदारी से काम करें। वे सब स्वयं भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे रहें। अपना घर भरते रहें। अपने बच्चों को कुर्सियों पर जमाते रहें और उन्हें खूब कमाने के अवसर प्रदान करते रहें। बस दूसरे मुंह पर मुसीका बांधे रहे! एक पैसा न खाएं।
इसलिए जहां अपने लिए नियम कुछ और हों, दूसरों क्रे लिए कुछ और, उस समाज में कुछ भी न अच्छा हो सकता है, न अच्छे की हमें उस समाज से उम्मीद करनी चाहिए! लोकपाल इसलिए भ्रष्टपाल ही बनेगा। और हमेशा एक सवाल बना रहेगा।

डॉ. दिनेश पालीवाल
इटावा, उत्तर प्रदेश 

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
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