अपनों के संगम  में
नेह का उजास  है
मन  में उद्गारों  का 
दहका पलास  है। 
साँसों  के सरगम  पर 
भौरों  का ज्वार है 
यौवन  के आँगन  में 
खिलती कचनार है 
तन  में उफनती सी 
नदी का हुलास  है।     
धरती के बिछौने पर 
सोया मृगछौना है 
उमगे सुंदरवन  में 
सुरभित  हर कोना है 
सुध-बुध  के खोने में 
मकरन्दी आस  है।
धरती पर बिछी हुई 
बहकी चंदनिया है 
तारों की छेड़छाड़ 
करती रंगरलियाँ हैं 
चंपा के फूल  खिले 
भौंरा उदास  है। 
आँखों की शोभा ज्यों 
कटी हुई अमिया है 
नाक  नक्स सुतवा सी 
कहती पैजनिया है 
लाज  के  लिफ़ाफ़े में 
तन-मन  की प्यास  है।
 लेखक- डॉ. जय शंकर शुक्ला 
संपर्क- 49/6, बैंक कॉलोनी, दिल्ली-110093
फोन नं. 09968235647
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बहुत ही अच्छी रचना है
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी रचना है
ReplyDeleteवाह! बहुत सुंदर..भावों का अद्भुत प्रवाह....
ReplyDeleteवाह! बहुत सुंदर..भावों का अद्भुत प्रवाह.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी रचना है
गीत बढ़िया लगा
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