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Saturday, April 28, 2012

मेरे प्रभु (कविता)





मै नही जानती तेरे सारे रूपों को
हर वास्तु में विद्यमान आप है प्रभु
मिटटी से बने इस नश्वर तन को
ज्ञान की गंगा में डुबा दो प्रभु



झूठे जग के ,झूठे रिश्ते- नातो में
कितना फँसाओगे इस जीवन को
अब तो आत्मा को परमात्मा का
साक्षात्कार करा दो मेरे प्रभु

इस जीवन में जरूरत है आपकी
तेरी शरण में अब जिन्दगी है मेरी
जीवन के इन दुखो से निकाल कर
अपनी शरण में लगा लो प्रभु

जीव रूप को धारण किया है आत्मा ने
आवरण को छोड़ निकलती है आत्मा
फिर दुःख क्यों होता है इस जीवन में
चक्षु से आवरण का पर्दा हटा दो प्रभु



लेखिका-कुंवरानी मधु सिंह 

3 comments:

  1. बहुत सुंदर भक्तिमय प्रस्तुति...

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  2. सुंदर व भावपूर्ण कविता...

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  3. सुन्दर भक्तिमयी प्रस्तुति के लिए आभार.

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